Migrents in Lockdown गरीबों की मजबूरी केवल मुद्दा, कारण कुछ और....

गरीबों की मजबूरी और उनके सपनों का सौदा


''कभी आंसू कभी ख़ुशी बेची,

गरीबों ने अपनी बेकसी बेची, 

चंद सांसे खरीदने के लिए रोज

थोड़ी सी अपनी जिन्दगी बेची''

कोरोना संकट के बीच लॉकडाउन में अपने घर वापसी के लिए जद्दोजहद लगातार जारी है। कोई मीलों दूर लंबा सफर पैदल तय कर तो कोई ट्रकों व अन्‍य दूसरी गाड़ियों पर सवार होकर अपने गांव लौट रहे हैं। लॉकडाउन ने देश को पलायन की वास्‍तविक स्‍थिति से रूबरू करा दिया है। राजनीति व तथाकथित बुद्धिजीवियों के स्‍वार्थसिद्धि की चक्‍की में पिसते इन मजदूरों की मूल समस्‍या और उनकी परेशानी पर शायद ही किसी की नजर पड़ी हो । कोई राजनीति के लिए तो कोई बंद कमरे में सामाजिक चिंतन कर सरकार के खिलाफ अपनी भड़ास निकालकर मीडिया के गलियारों में वाहवाही लूटने में लगे हैं। इनके लिए भी शायद गरीब शब्द शतरंज का ऐसा मोहरा है, जिसकी बिसात पर ये सत्‍ता शीर्ष को झुकाने के प्रयास में लगे रहते हैं। यह देखकर और भी दुख होता है कि कुछ तथाकथित मीडिया चैनलों के लिए भी गरीब एक टीआरपी बनकर रह गये। जबकि, एक सच्‍चाई यह भी है कि गरीब मजदूरों के पलायन के लिए उन्‍हें महानगरों की चकाचौंध दिखाकर उनके संघर्ष को अपनी कमाई का जरिया बनाने वाले इन गरीबों के सौदागर का मुद्दा किसी ने नहीं उठाया ।

गरीबों को ऐसे दिखाये जाते हैं बड़े-बड़े सपने

एक गांव में सभी लोग मेहनत मजदूरी कर सभी लोग परिवार के साथ हंसी खुशी के साथ गुजर बसर कर रहे थे। एक दिन उस गांव में एक अमीर आदमी आता है और उन्‍हें बड़े शहरों में काम करने और वहां रहने खाने की सुविधाएं देने की बात कहकर छोटी-छोटी आंखों में बड़े-बड़े सपने दिखाकर चला जाता है । कुछ दिनों तक तो सभी गांव वाले अपने अपने काम में लग जाते हैं, मगर उन्‍हीं में से कुछ की आंखों में बड़े शहरों में रहनेऔर काम करने की इच्छाएं जागने लगती हैं और किसी तरह हिम्‍मत करके पहली बार जब गांव को छोड़कर बसों व ट्रेनों में धक्‍के खाकर शहर पहुंचते हैं तो वहां की आलिशान बिल्‍डिंग और बाजारों की रौनक उनकी सारी थकान दूर कर देती है। इन्‍हें वहां रहने खाने की सुविधा देकर काम  पर लगा दिया जाता है। जब ये लोग महीने की तनख्‍वाह अपने घर भेजते हैं तो पूरा परिवार उन्‍हें अपने से दूर रखकर भी यह सोचकर निश्‍चिंत हो जाता है कि उनकी आर्थिक परेशानी दूर हो रही है। जब ये गांव पहुंचते हैं और जीवनशैली में बदलाव देखकर दूसरे लोग भी काम की तलाश में शहर जाने को राजी हो जाते हैं। एक उम्र के बाद जब उसकी कार्रक्षमता घट जाती है तो वह वापस अपने गांव में ही रहने को मजबूर हो जाता है। यही सिलसिला चलता रहता है और गरीब अपने सपनों को पूरा करने की आश में यूं ही अपनी जिंदगी मुरझा देता है ।

गरीबों के सपने बेचकर ऐसे मोटी कमाई कर रहे सौदागर

शहरों व दूसरे बड़े राज्‍यों में मजदूर नहीं मिलने के कारण वहां चलने वाले उद्योग धंधे, कल कारखाने, निर्माण कार्य का काम प्रभावित हो जाता है। ऐसे में मजदूरों की कमी पूरा करने के लिए ठेकेदार किस्‍म के लोग इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। मजदूरों को गांव से शहर लाने में उन्‍हें मोटा कमीशन मिलता है, जिससे वे मालामाल हो जाते हैं। इसके बाद सुधि नहीं ली जाती है। लॉकडाउन में श्रमिकों को यूं ही उनके हाल पर छोड़ दिया गया। थक हारकर लोगों को पैदल तो ट्रकों पर सवार होकर मजबूरी में अपने गांव लौटना पड़ा । मगर, इतनी बड़ी तादाद में मजदूरों की घर वापसी ने पलायन की हकीकत दिखा दी है।

ऐसा है कमाई का गणित

अगर किसी एक मजदूर को शहर में 10 हजार महीने पर काम मिलता है तो ठेकेदार को एक से दो हजार का कमीशन दिया जाता है। ऐसे ही कोई ठेकेदार जितने भी अधिक मजदूर को शहर में काम पर लगायेगा तो उसे बैठे-बिठाये हर महीने पैसे मिलते रहते हैं।
एक उदाहरण
10 से 12 हजार की मजदूरी पर अगर एक से दो हजार कमीशन भी मिल जायें तो ठेकेदारी का गणित लाखों करोड़ों में  हो जाता है। इसी पैसे से ये बाद में अपने कारोबार चलाते हैं और समाजसेवी बन जाते हैं।
गांव  मजदूरों की  संख्‍या       कमीशन
1              1                     1000-2000
1            10                   10,000-20,000
1           50                     50,000-1,00,000
1          100                   1,00,000-2,00,000
(नोट- ये आंकड़े औसत में हैं और कमीशन का प्रारूप दिखाने के लिए हैं।

बिहार और झारखंड के सर्वाधिक मजदूर करते हैं पलायन

बता दें कि बिहार तकरीबन 45000 गांव हैं और बिहार से करीब 23,00,000 श्रमिक देशभर में मेहनत मजदूरी करते हैं। कुछ श्रमिक को छोड़कर अगर 10,00,000 श्रमिकों को भी काम दिलाने के नाम पर महीने की कमीशन की बात करें तो यह आंकड़ा अरबों में पहुंच जाता हैं। वैसे ही झारखंड के लगभग 32000 गांवों से 7,00,000 से अधिक मजदूर दूसरे राज्‍यों में काम करते हैं। इनमें अगर 2,00,000 श्रमिकों से भी मिलने वाले आंकड़ों पर यकीन करें तो कमीशन 40,00,00,000 (40 करोड़) रुपये के करीब पहुंच जाता है। इस प्रकार केवल इसी धंधे से इन्‍हीं दोनों राज्‍यों के गरीबों के सपने बेचकर लाखों करोड़ों की कमाई कर रहे हैं।

सरकारी योजनाओं के बावजूद क्‍यों पलायन कर रहे लोग

सरकार किसी की भी हो गरीबों के लिए कई योजनाएं चलाती रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का अवसर देने के लिए उन्‍हें योजनाओं से जोड़ा जाता है। साथ ही एसएचजी व अन्‍य ग्रुप के माध्‍यम से स्‍वावलंबन के लिए प्रोत्‍साहित भी किया जा रहा है, फिर भी गरीब पलायन को क्‍यों विवश हैं, यह बड़ा सवाल है । इसके पीछे की वजहों पर बात करें तो स्‍थानीय स्‍तर पर बिचौलियों के हावी रहने के कारण अधिकांश गरीब योजनाओं से महरूम हो जाते हैं। फिर सरकारी कार्यालयों के धक्‍के उन्हें अंदर से बेबस कर देते हैं। फिर योजनाओं के पैसे समय पर नहीं मिलने और इसमें भी बिचौलिये की दखलंदाजी उन्‍हें पलायन को मजबूर कर देती है।

तो क्‍या करे सरकार

गांव से पलायन रोकने के लिए निम्‍नलिखित उपायों पर हर सरकार  को काम करना चाहिए। जिससे पलायन की समस्‍या तो रूकेगी ही काफी हद तक गरीबी पर रोक भी लग सकेगी।
  1. योजनाओं को राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा के लिए बंद करने की बजाय इसे चालू रखते हुए दूसरी योजनाएं भी शुरू करनी चाहिए। जिससे एक योजना पूरी होने पर दूसरी योजना से श्रमिकों  को जोड़ा जा सके।
  2. श्रमिकों को काम के एवज में समय पर भुगतान होना चाहिए, साथ ही इसमें बिचाैलियों पर कड़ाई से नजर रखने की जरूरत है।
  3. स्‍थानीय स्‍तर पर छोटे व मंझोले उद्योग को बढ़ावा देने की जरूरत है ताकि, लोग यहीं काम कर राज्‍य व देश के विकास में अपनी भूमिका अदा कर सकें।
  4. सबसे बड़ा और महत्‍वपूर्ण विषय है ''भ्रष्‍टाचार''। भ्रष्टाचार एक ऐसा दीमक है जो धीरे-धीरे पूरे सिस्‍टम को खोखला कर रहा है। ऊपरी स्‍तर पर भले ही इसपर अंकुश लगाया जा  सकता है, मगर स्‍थानीय स्‍तर पर यह ऐसा वायरस है जो विकास के लिए बड़ा बाधक है।


 

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